Hacker

Hacker
Chapter – 1

हैकिंग शब्द सुनते ही सबसे पहले ज़ेहन में आता है लैपटॉप पर बैठकर कीबोर्ड पर तेज़ी से उंगलियाँ चलाता एक रहस्यमयी व्यक्ति…. फिल्मों से लेकर टीवी सीरीज़ में ऐसे हैकर दिखाए जाते हैं जिन्हें कोई हरा नहीं सकता, जो सिर्फ कीबोर्ड पर उंगलियां चलाकर ट्रैफिक लाइट्स तक काबू में कर सकते हैं लेकिन क्या असल जिंदगी में ऐसी हैकिंग संभव है? क्या होगा अगर कुछ कॉलेज स्टूडेंट्स सिस्टम के खिलाफ खड़े होने के लिए हैकिंग का सहारा लेंगे? रहस्य, रोमांच और प्रेम के ताने बाने में बुनी एक ऐसी कहानी जो हैकिंग को लेकर ना सिर्फ आपका नज़रिया बदल देगी बल्कि समाज के कई और पहलुओं पर भी रौशनी डालने की कोशिश करेगी।

कॉलेज का पहला दिन-
एक लंबा, छरहरा और गोरा सा लड़का काली टी शर्ट के ऊपर मोटी सी काली जैकेट और नीली जीन्स पहने हुए पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर उतरा। उसके कंधे पर एक लाल बैग टंगा हुआ था और एक पुरानी सी अटैची उसने अपने दाएं हाथ में पकड़ी हुई थी। उसने स्टेशन पर इधर उधर देखा लेकिन सुबह छह बजे की सर्दी के कारण उसे कोई कुली नज़र नहीं आया। स्टेशन पर बहुत ही कम लोग थे और जो थे वो उसी ट्रेन से उतरे थे जिससे वह लड़का उतरा था।
कुली ना मिल पाने के कारण उसने मन ही मन कहा “कहाँ फंस गया यार?”
लेकिन अब रेलवे स्टेशन को कोसने से कोई फायदा नहीं होने वाला था इसलिए वह अटैची को पहिये से घसीटते हुए स्टेशन के बाहर निकल आया। स्टेशन से बाहर निकलकर उस लड़के को दिल्ली की चुभने वाली सर्दी का पहला अहसास हुआ, उसके कदम तेज़ हो गए। स्टेशन के बाहर हल्के हल्के कोहरे के बीच दो चार ऑटो खड़े हुए थे। वह लड़का तेजी से सबसे पहले ऑटो के पास पहुंचा। ऑटोवाला बैठा बैठा ही ऊंघ रहा था लेकिन उस लड़के की तेज़ आवाज़ सुनकर एकदम से चौंकते हुए उठ बैठा “भैया! राममूर्ति इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी चलोगे?”
ऑटोवाला आँखें मलते हुए बोला “हां चलेंगे लेकिन तीस रुपये भाड़ा लगेगा।”
उसके बाद लड़के ने उससे कोई सवाल नहीं किया, शायद भीषण सर्दी के कारण उसने ऑटोवाले से मोल भाव करना ठीक नहीं समझा। वह झट से सामान लेकर ऑटो के अंदर बैठ गया और ऑटो चल पड़ा। ऑटो अपनी गति से आगे बढ़ रहा था और वह लड़का अपने ही ख्यालों में खोया हुआ था।

पंद्रह मिनट बाद उसकी तंद्रा भंग हुई, जब ऑटोवाले ने कहा “साहब! कॉलेज आ गया!”

वह लड़का एकदम से चौंका, वह ऑटो से बाहर निकलते हुए बोला “अरे भैया! इतनी सी दूरी के तीस रुपये?”

ऑटोवाले ने उसे अजीब तरीके से घूरा और पूछा “आप दिल्ली के नहीं हो क्या साहब?”

“नहीं, मैं आगरा का रहने वाला हूँ।”

यह सुनकर ऑटोवाला मुस्कुराया और कहा “अरे ये दिल्ली है साहब दिल्ली है दिल्ली, वहाँ से दुगुने रेट पर ऑटो चलते हैं यहाँ! वैसे भी आपके बैठने से पहले ही रेट फिक्स हो चुका था।”

विवेक ने उससे ज़्यादा बहस करना ठीक नहीं समझा, उसने जेब में हाथ डाला और दस दस के तीन मुड़े तुड़े से नोट उसको पकड़ा दिए। अब उस लड़के को उसके सामान समेत कॉलेज के गेट पर छोड़कर ऑटो जा चुका था। वह मुड़ा और कॉलेज के बड़े से गेट पर तीखी नज़र डाली, उस बड़े गेट के अंदर उसे अपने जीवन के चार साल बिताने हैं, यह विचार ही उसके अंदर झुरझुरी सी कर रहा था। उस समय कॉलेज का गेट बंद था, उस लड़के ने गेट में लगी लोहे की सलाख़ों के बीच से ही अंदर नज़र डाली। दाईं और बायीं तरफ हरे भरे मैदान थे और बीच में एक चौड़ी सी सड़क जो आगे को जा रही थी। पिछले कुछ दिनों की यादें वापिस से उसके ज़ेहन में आ रही थीं, उसे याद आया कि कैसे उसने घर पर इसी कॉलेज में जाने के पीछे कितनी लड़ाई की थी।

उसके पिता उसे समझा रहे थे “विवेक! तुम्हारा सेलेक्शन जब NDA में हो चुका है तो तुम्हें इस प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में ही क्यों जाना है?”

विवेक ने अपनी सफाई दी “पापा! मुझे कोडिंग में इंटरेस्ट है और राममूर्ति कॉलेज में कंप्यूटर साइंस की ब्रांच को लोग बहुत अच्छा मानते हैं।”

पापा का पारा चढ़ चुका था, वे गुस्से से बोले “अरे अगर इंजीनियरिंग कॉलेज में ही जाना था तो क्रैक कर लेता iit! इस प्राइवेट कॉलेज में जाकर क्या करेगा? कितनी ही कंपनियां आती होंगी यहाँ प्लेसमेंट देने? जब NDA में सेलेक्शन हो गया है तो चुपचाप ले लो एडमिशन।”

विवेक वैसे पापा को गुस्सा देखकर सहम ही जाता था लेकिन बात यहाँ उसके करियर की थी इसलिये वह भी अड़कर बोला “नहीं पापा! जाऊंगा तो मैं राममूर्ति ही।”

विवेक के पिता ने अपना संयम खोकर उसे एक तेज थप्पड़ जड़ दिया। माँ उसे बचाने को आगे बढ़ीं लेकिन पीछे से विवेक की बड़ी बड़ी बहन शांति ने उन्हें रोक दिया। शांति चाहती थी कि विवेक और पापा आपस में बातचीत करके मामला सुलझा लें लेकिन उसे क्या पता था कि बात सुलझने के बजाय और बिगड़ जाएगी।

दरअसल बात यह थी कि बचपन से ही विवेक में कंप्यूटर और उससे जुड़ी चीज़ों को लेकर अजीब सी दिलचस्पी थी। जहाँ उसका बड़ा भाई मनोज और उससे भी बड़ी शांति हर क्लास में फर्स्ट आते थे, वहीं विवेक अपने स्कूल का एक एवरेज स्टूडेंट था। वह हर सब्जेक्ट में पास होने लायक मार्क्स ले आता लेकिन कंप्यूटर के सब्जेक्ट में उसके जितने नम्बर कोई भी नहीं ला पाता था। वक्त के साथ कंप्यूटर की दुनिया में विवेक की रुचि बढ़ती गयी। फर्स्ट ईयर में ही वह सी लैंग्वेज, जावा और पाइथन कोडिंग सीखकर ऐसे ऐसे प्रोग्राम बिल्ड करने लगा जिसे देखकर उसके स्कूल के टीचर दांतों तले उंगली दबा लेते। उनके स्कूल की पेरेंट्स टीचर मीटिंग में भी जहाँ बाकी सब्जेक्ट्स के टीचर विवेक के माता पिता से उसकी पढ़ाई पर ध्यान देने के लिए बोलते वहीं कंप्यूटर टीचर उसकी तारीफ करते नहीं थकते। उसके माँ बाप भी मीटिंग से घर आकर उसे बहुत डांटते, वे अक्सर कहते कि दो लायक बच्चों के बाद एक नालायक ने उनके घर में जन्म ले लिया है लेकिन इन सब चीजों का असर विवेक पर बहुत ही कम होता था। वह बहुत ही हरफन मौला और बेफिक्र किस्म का लड़का था। स्कूल में अपने कंप्यूटर कोडिंग के ज्ञान के दम पर वह कई शरारतें भी कर चुका था। एक बार उसने अपने स्कूल के कंप्यूटर सिस्टम को ही हैक कर लिया था और स्कूल एडमिनिस्ट्रेशन को जो भी परेशानी हुई, उसके कारण विवेक को कुछ दिनों के लिए स्कूल से सस्पेंड भी कर दिया गया था। विवेक के साथ यह बड़ी समस्या थी कि वह कभी भी ज़्यादा सीरियस होकर नहीं रहता था। बारहवीं के बोर्ड में उसके एवरेज मार्क्स आये थे, तब भी वह पापा से डांट खाकर शाम को दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलने चल दिया था। विवेक के पिता रमेश जोशी और माता सुषमा जोशी को उसकी बड़ी चिंता होती थी, वह हमेशा उससे करियर को लेकर सीरियस होने को कहते और विवेक हर बार उनकी बात अनसुनी कर देता। इसी वजह से उनके बीच कम्युनिकेशन गैप की समस्या भी बढ़ती गयी। विवेक अपने से एक साल बड़े मनोज से भी हूल नहीं खाता था, जब मम्मी पापा विवेक को डांटते तो सबसे ज़्यादा मजा मनोज को ही आता था। वह एक कोने में खड़ा होकर हंसी दबाने की कोशिश करता, विवेक की नज़र भी हंसते हुए मनोज पर पड़ती पर चूंकि माँ बाप की डांट का केंद्र उस वक्त वही होता, इस कारण से उसे उस वक्त नज़रें झुकाकर खड़े रहना पड़ता। अगर घर में कोई ऐसा था जिससे विवेक की बनती थी तो वह थी उसकी बहन शांति। मम्मी पापा जब उसे डांटते तो शांति ही बीच में आकर उसे बचाने का प्रयास करती। वह कभी कभी मनोज को भी डपट देती क्योंकि वह विवेक की मदद करने के बजाय दूर खड़ा उस पर पड़ रही डांट का मजा लेता था।
शांति जहाँ एक अच्छे सरकारी कॉलेज से अपनी MBBS पूरी कर रही थी, वहीं मनोज का सेलेक्शन भी iit में हो चुका था। पूरे मोहल्ले मनोज की वाहवाही हो रही थी और उसकी वजह से विवेक बिल्कुल जल भुन गया था। उससे भी तगड़ी चपत विवेक को तब लगी जब एक साल की कड़ी मेहनत के बाद भी वह iit का एंट्रेस एग्जाम क्लियर नहीं कर पाया। इस बार उसने वाकई मेहनत की थी लेकिन उसका पेपर क्लियर नहीं हुआ था। मनोज उस वक्त अपने हॉस्टल में था लेकिन शांति वहीं घर पर थी। घर का माहौल उसके बाद से गंभीर हो चला था लेकिन उसके बाद विवेक ने और मेहनत की और NDA का पेपर क्लियर कर लिया। एक बार फिर परिवार में खुशी की लहर दौड़ गयी लेकिन विवेक ने इस बार भी बम फोड़ दिया जब उसने कहा कि उसे राममूर्ति इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में एडमिशन लेना है। उसके पिता ने ऐड़ी चोटी का जोर लगाकर उसे समझाया लेकिन जब वह नहीं माना तो उनसे रहा नहीं गया और उन्होंने एक जोरदार तमाचा उसके गाल पर रसीद कर दिया। विवेक को अभी भी याद है कि कितने गुस्से में अपना सामान पैक करके वह घर से निकल गया था। उसकी माँ और बहन ने उसे रोकने की पूरी कोशिश की लेकिन वह नहीं रुका।
तभी अचानक वह इन सभी यादों के भंवर से एक झटके में निकल आया जब गेट के पास आते सिक्योरिटी गार्ड ने उससे पूछा “क्या काम है?”

विवेक कुछ बोलता, उससे पहले की गार्ड ने एक और सवाल दागा “अच्छा! न्यू एडमिशन हो क्या?”

विवेक ने “हां” की मुद्रा में सिर हिला दिया, उसके बाद गार्ड ने गेट खोलते हुए उससे पूछा “वैसे एक महीना लेट कैसे हो गए आप?”

“वो.. वो मेरी काउंसलिंग बाकी थी।” विवेक ने अपने मन से बनाते हुए कहा। अब उसका ध्यान गार्ड की तरफ नहीं था, वह आंखें चौड़ी करके उस शानदार कैंपस को देख रहा था जो उसे बाहें फैलाये बुला रहा था। उसका नया जीवन शुरू होने जा रहा था, यह सोचकर ही वह हक्का बक्का रह गया था।

गार्ड एक रेजिस्टर विवेक को पकड़ाते हुए बोला “इसमें अपना नाम, पता और नम्बर नोट कर दीजिए।”

विवेक ने जल्दी जल्दी औपचारिकताएं पूरी कर दीं, उसके बाद गार्ड बोला “बॉयज होस्टल, यहाँ से बायीं तरफ जाकर है। वैसे मुझे बताने की ज़रूरत भी नहीं है, आप यहाँ से मुड़ेंगे तो आपको दिख जाएगा।”

विवेक आगे की तरफ बढ़ने लगा, वह उन हरे भरे मैदानों की तरफ भी सरसरी निगाहों से देखता जा रहा था जिसमें घास की कटाई करके कई तरह की आकृतियां बनाई गई थीं। उन मैदानों के खत्म होते ही एकदम सामने एक बड़ी सी बिल्डिंग थी जिस पर बॉयज हॉस्टल लिखा था। होस्टल के बड़े से दरवाज़े के अंदर घुसते ही इधर उधर कई सारी लॉबियाँ थीं, हर एक लॉबी में लगभग आठ दस कमरे थे। विवेक यह सब मुआयना कर ही रहा था कि उसके एकदम बगल वाले कमरे से एक बहुत ही हट्टा कट्टा घनी मूँछों वाला, लगभग चालीस का आदमी बाहर आया और उसकी तरफ देखकर पूछा “नया एडमिशन?”

“जी” विवेक ने धीरे से कहा।

“मैं वार्डन हूँ, राजीव शर्मा। वैसे तुम रजिस्ट्रेशन करा चुके ना? कॉलेज में एनरोलमेंट हो गया ना?”
“जी वो तो ऑनलाइन ही करा लिया था।”

इस जवाब के बाद उस आदमी ने पास ही मेज पर पड़ा एक रेजिस्टर उठाया और पन्ने पलटते हुए कहा “हम्म, देखने दो। तुम्हारा नाम विवेक जोशी है क्या? सिर्फ यही एक लड़का है जिसकी सीट बची है हॉस्टल में।”

“जी, यही नाम है मेरा।” विवेक ने झेंपते हुए कहा।

राजीव उस रेजिस्टर में नज़रें गड़ाए हुए ही बोला “अरे इतना लेट कैसे हो गए बेटा? अभी महीने भर का कोर्स कवर करना पड़ेगा तुमको।”

विवेक ने वही जवाब दिया जो बाहर गार्ड को दिया था “जी वो दरअसल मेरी काउंसलिंग बाकी बची थी।”

राजीव आसानी से यह बात मान भी गया “हम्म, आमतौर पर लड़के दो राउंड के बाद कॉलेज काउंसलिंग नहीं कराते, तुम थर्ड राउंड तक गए थे क्या?”

“जी” विवेक ने फिर धीमे से जवाब दिया, उसका ध्यान वार्डन के सवालों पर नहीं था। वह तो उस होस्टल को निहार रहा था जहाँ उसे फर्स्ट ईयर के लिए रहना था।

राजीव उसे एक चाबी पकड़ाता हुआ बोला “तुम्हारे रूम नम्बर 204 है, जो कि सेकंड फ्लोर पर बायीं तरफ पड़ेगा। वो टू सीटर है, तुम्हारे अलावा एक लड़का और है। उस कमरे के ताले की दो चाबियाँ हैं, एक उसके पास है और एक मैंने तुम्हें दे दी। हॉस्टल में चौबीस घंटे बिजली, पानी की सप्लाई है और हर फ्लोर पर काफी सारे बाथरूम हैं तो टेंशन ना लेना ज़्यादा।”

“जी धन्यवाद” इतना कहकर विवेक ने चाबी अपने जैकेट की जेब में चाबी डाल ली और सामान लेकर सीढ़ियों से ऊपर की तरफ बढ़ गया। हॉस्टल में चार फ्लोर थे, हर फ्लोर काफी खुला खुला था, हर फ्लोर में तीन लॉबियाँ थीं जहां दाईं ओर बायीं तरफ कमरे बने हुए थे। विवेक यह सब चीजें गौर से नोट करता हुआ रूम नंबर 204 के सामने आ खड़ा हुआ। दरवाज़ा अंदर से बंद था, उसने दरवाज़ा खटखटाया, कोई रिस्पांस नहीं आया। कुछ देर रुकने के बाद एक बार फिर जोर से खटखटाया।

“अरे आ रहा हूँ यार!” अंदर से किसी की आवाज़ आयी।
इतना तो तय था कि अंदर जो भी था, विवेक के खटखटाने से पहले बड़ी ही सुकून की नींद ले रहा था। दरवाज़ा खट से खुला और सामने लोअर और बनियान में पतला दुबला सा लड़का खड़ा था जो आंखें मल रहा था।

विवेक ने उसे देखकर मुस्कुराकर हाथ बढ़ाया और कहा “हाय, मेरा नाम विवेक है। आपका रूममेट।”

लड़का उसके बढ़े हुए हाथ की तरफ बिना ध्यान दिए ही अंदर चला गया और उससे कहा “तुम्हें एक खाली अलमारी मंगवानी पड़ेगी, मैंने तो अपना सारा सामान सेट कर लिया है।”

विवेक कमरे अंदर घुसा, कमरा ठीक ठाक था, न ज़्यादा बड़ा, न ज़्यादा छोटा। उस लड़के का बिस्तर दीवार से एकदम चिपककर लगा हुआ था और बिस्तर के ठीक सामने मेज कुर्सी थी जिस पर कुछ किताबें और कॉपियां रखी हुई थीं। साथ में एक लोहे की अलमारी भी थी। दीवारों पर कुछ जगहों से प्लास्टर उखड़ा सा था। जगदीश ने अपनी अलमारी पर सरस्वती माता की फोटो चिपका रखी थी जिससे पता चलता था कि वह काफी धार्मिक किस्म का लड़का है। कमरे में एक छोटी सी बालकनी थी जो कि जगदीश के बिस्तर के एकदम पास ही थी। अब विवेक ने दूसरे बिस्तर की तरफ ध्यान दिया जो बस यूहीं पड़ा हुआ था, उसके बिस्तर के पास एक खिड़की भी थी जिसके शीशे को बहुत से अखबार के कागजों से पूरी तरह ढक दिया गया था। उसने ध्यान दिया कि उसके बिस्तर के पास जगदीश जैसी अलमारी नहीं थी।

“यार अब अलमारी भी उठानी पड़ेगी।” उसने मन ही मन सोचा और अपना सामान उस बिस्तर के नीचे घुसा दिया।
बिस्तर पर ना तो चादर बिछी थी और ना ही तकिया था लेकिन फिर भी विवेक धम्म से जाकर उस पर पीठ के बल लेट गया। उसकी आंखें ऊपर छत से लगे पंखे पर गड़ी थीं जो फिलहाल सर्दी की वजह से बंद था। उसने लेटे लेटे ही अपने रूममेट से वापिस पूछा “सुनो, तुम्हारा क्या नाम है?”

वह लड़का जो वापिस सोने की कोशिश कर रहा था, ऊँघते हुए जवाब दिया “जगदीश दुबे। पटना से हैं हम। तुम कहाँ से हो?”

“आगरा से, वैसे मुझे तुम्हारे लहजे की वजह से लग ही रहा था कि तुम बिहार साइड से होगे, वहीं लोग मैं को हम बोलते हैं ना?”

विवेक ने देखा कि उसके सवाल के बाद जगदीश उसे अजीब तरीके से घूर रहा था, वह बोला “अरे ऐसा थोड़े ही है, उत्तर प्रदेश में तुम कहीं भी पूरब साइड चले जाओ, गोरखपुर, देवरिया, प्रयागराज हर जगह तुम्हें ऐसा लहजा मिलेगा।”

विवेक समझ गया था कि उसके प्रश्न का जगदीश हल्का सा बुरा मान गया था तो उसने टॉपिक चेंज करते हुए पूछा “अच्छा ये कॉलेज कितने बजे से शुरू होता है?”

“होता तो नौ बजे से है लेकिन आज और कल नहीं जाना है।”

अब तक लेटा हुआ विवेक अचानक से उठ बैठा और पूछा “क्यों? ऐसा क्यों?”

“अरे भाई, आज सैटरडे है और कल संडे, इसीलिए।” जगदीश ने तन्मयता से सोते हुए बताया।

विवेक ने राहत की सांस ली, उसे तो लग रहा था कि आज ही उसे तैयार होकर भागना पड़ेगा। घर से लड़ाई करके आने के चक्कर में उसके दिमाग से यह तो निकल ही गया था कि वह सैटरडे के दिन कॉलेज आ रहा है। उसने मन ही मन सोचा “चलो अच्छा ही हुआ, अब मैं कमरा वगैरह सेट कर लूँगा। आसपास की दुकानों से ज़रूरत भर का सामान भी ले लूंगा।”

उसने कुछ सोचते हुए जेब से अपना फोन निकाला, उसे लगा कि अब तक तो घर से काफी सारे कॉल्स आ गए होंगे लेकिन यह देखकर वह थोड़ा चकित हुआ कि उसके पापा की एक भी मिस कॉल नहीं पड़ी थी। केवल शांति की ही दो मिस कॉल थीं। उसने शांति को फोन लगाया, दूसरी तरफ से शांति की आवाज़ आयी “कहाँ था तू? दो बार कॉल किया मैंने? हॉस्टल सही से पहुंच गया ना?”

“हां दीदी, आप चिंता मत करो, मैं हॉस्टल में अपने कमरे में ही हूँ। अच्छा ये बताइये की घर का माहौल कैसा है?”

शांति थोड़ी धीमी आवाज़ में बोली “फिलहाल तो बिल्कुल अच्छा नहीं है, पापा अभी भी बेहद गुस्से में हैं। कल से मेरी छुट्टियां खत्म, उसके बाद मुझे भी कॉलेज जाना पड़ेगा लेकिन पापा जल्द ही मान जाएंगे। तू यह सब चिंता ना कर, तेरी कॉलेज लाइफ शुरू होने जा रही है, तू उसे एन्जॉय कर और कोई प्रॉब्लम हो तो तुरंत मुझे फोन करना।”

“जी दीदी” विवेक थोड़ा सा दुखी होकर बोला, यूँ तो उसकी उसके पिता से कई बार अनबन हुई थी लेकिन इस बार बात हद से थोड़ा आगे ही जाती लग रही थी। उसने फोन अपने बगल में ही रख दिया।

इस बार जगदीश ने लेटे लेटे ही विवेक की तरफ मुड़कर पूछा “कौन सी ब्रांच लिए हो?”

विवेक को भी इस वक्त बातचीत करने वाला कोई चाहिए था, वह बोला “कंप्यूटर साइंस और तुम?”

जगदीश गहरी सांस लेकर बोला “अरे हमको भी कंप्यूटर साइंस लेना था लेकिन पिताजी इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन दिलवा दिए। बोले बहुत स्कोप है। अब उनको का समझाएं कि जिस भी फील्ड में इंटरेस्ट रहता है उसमें स्कोप अपने आप बन जाता है।”

“वैसे स्कोप तो कंप्यूटर साइंस में भी बहुत है या फिर ये कहना भी सही होगा कि आजकल उसी का ज़माना है। वैसे भी मुझे काफी पहले से कोडिंग वगैरह अच्छी लगती थी तो अगर अपने पसंद की फील्ड ली जाए तो क्या बुराई है।”

यह सुनकर जगदीश के चेहरे पर हल्की सी मुस्कुराहट आ गयी, वह बोला “अरे हम जहाँ से हैं भाई वहाँ इतने पढ़े लिखे लोग तो हैं नहीं लेकिन अगर गलती से किसी पड़ोसी के लड़के ने इलेक्ट्रॉनिक्स एंड कम्युनिकेशन से बीटेक कर लिया तो पूरे मोहल्ले को वही ब्रांच अच्छी लगने लगती है। फिर उसके आगे पीछे बाकी चीजों पर ध्यान नहीं दिया जाता।”

विवेक ने मन ही मन सोचा “अगर इसने सुन लिया कि कंप्यूटर साइंस के चक्कर में वह तो घर ही छोड़कर भाग आया तो वहीं बेहोश न हो जाये।”

जगदीश उसकी तरफ मुड़कर बोला “अच्छा सुनो, अभी सुबह सुबह का टाइम है। ज़्यादा लड़के लोग जागे नहीं होंगे। बाहर बहुत सी खाली अलमारी पड़ी हैं, हम दोनों मिलकर एक अलमारी कब्जा लेते हैं।”

लेटा हुआ विवेक तुरंत उठकर बोला “सही कह रहे हो, अलमारी मिलना सबसे जरूरी है।”

वे दोनों बाहर लॉबी में आ गए। जगदीश सही कह रहा था, बहुत सी अलमारियां वैसे ही पड़ी हुई थीं। एक अलमारी को देखकर जगदीश बोला “यह ज़्यादा बड़ी नहीं है, इसे आराम से उठा भी सकते हैं और इसमें तुम्हारा सामान भी फिट हो जाएगा।”

उसके बाद उस अलमारी को खिसका खिसका कर कमरे तक लाया गया। अच्छी बात यह थी कि वह कमरे से ज़्यादा दूर नहीं थी वरना खिसकाने में हालत खराब हो जाती। पतली दुबली काया वाला जगदीश तो कोई जोर लगा ही नहीं पा रहा था, सारी मेहनत विवेक को ही करनी पड़ी लेकिन आखिरकार अलमारी उनके कमरे में पहुँच ही गयी। उसके बाद विवेक ने अलमारी के अंदर कपड़े वगैरह सेट करना शुरू कर दिया। अलमारी सेट करने में उसे लगभग आधा घंटा लगा। इन सब कामों में साढ़े सात बज चुके थे, धूप निकल आयी थी। अलमारी सेट करने के बाद जगदीश मुस्कुराते हुए बोला “बधाई हो भाई, अब तुम्हारी भी हॉस्टल लाइफ शुरू हो गयी।”

  1. विवेक कुछ नहीं बोला, उसे अभी नई जगह सेटल होने में कुछ समय और लगना था।

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